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ब्रह्मांड की शुरुआती आवाजे सुनने में एक छोटे कंप्यूटर की बड़ी भूमिका!!

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को ढ़ालते इतिहास के साम्राज्यवादी अध्याय!!

द्वितीय विश्व युद्ध मानव इतिहास की सबसे भयानक और निर्णायक घटनाओं में से एक है। यह युद्ध केवल सैन्य ताक़तों की भिड़ंत नहीं था, बल्कि साम्राज्यवादी शक्तियों की महत्वाकांक्षाओं, उपनिवेशित समाजों की पीड़ा और वैश्विक व्यवस्था के पुनर्निर्माण का भी साक्षी था। यूरोप में नाज़ीवाद और फासीवाद को हराने की कहानियाँ जितनी बार दोहराई जाती हैं, उतनी ही बार एशिया और अफ्रीका के दुखद प्रसंगों को भुला दिया जाता है। यह युद्ध इतिहास का ऐसा कोश है जिसमें असंख्य कुत्सित अध्याय दर्ज हैं नरसंहार, यौन शोषण, रासायनिक प्रयोग, जबरन मजदूरी और उपनिवेशित समाजों का शोषण। किंतु विजेताओं ने हमें वही पन्ने पढ़ने दिए जो उनकी राजनीतिक जरूरतों के अनुरूप थे। हमें नायकों और खलनायकों की वही परिभाषाएँ दी गईं जो पश्चिमी शक्तियों के हितों से मेल खाती थीं। इसी वजह से नानकिंग नरसंहार, यूनिट 731 जैसे जापानी प्रयोग, चीन और सोवियत संघ की भयावह जनहानि या अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी उपनिवेशों की त्रासदी कभी मुख्यधारा की स्मृति का हिस्सा नहीं बन पाई।

सोवियत संघ की भूमिका इस युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण रही। जर्मन नाज़ी सेना का मुकाबला करने में उसने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी और इसकी कीमत 2.6 से 2.7 करोड़ सैनिकों व नागरिकों की जान के रूप में चुकाई। आज जब पश्चिमी विमर्श में द्वितीय विश्व युद्ध की चर्चा होती है, तो अमेरिका और ब्रिटेन के योगदान को ही रेखांकित किया जाता है, जबकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि नाज़ी सेना की कमर सोवियत मोर्चे पर ही टूटी थी। हर चौथे सोवियत परिवार ने किसी न किसी सदस्य को खोया, लाखों गाँव जला दिए गए और पूरा समाज युद्ध की विभीषिका से गुजरता रहा। दूसरी ओर चीन ने जापानी साम्राज्यवाद का सामना किया। जापानी सेना ने चीन पर कब्ज़े के दौरान न केवल लाखों नागरिकों का नरसंहार किया, बल्कि महिलाओं को ‘कंफर्ट वुमेन’ बनाकर यौन दासता में धकेला। नानकिंग नरसंहार में 3 लाख से अधिक निर्दोष नागरिक मारे गए और हजारों महिलाओं के साथ दुष्‍कर्म हुआ। यह घटना नाज़ी अत्याचारों से किसी भी तरह कम नहीं थी।

जापान का कुख्यात “यूनिट 731” एक ऐसा अध्याय है जो मानवता को शर्मसार करता है। यहाँ ज़िंदा इंसानों पर जैविक और रासायनिक हथियारों के प्रयोग किए गए कैदियों को प्लेग और हैजा से संक्रमित किया गया, बच्चों और महिलाओं पर बर्बर प्रयोग किए गए और सैनिकों को यह देखने के लिए जिंदा चीरकर खोला गया कि बीमारियाँ शरीर को कैसे प्रभावित करती हैं। युद्ध के अंत में जापान ने चीन की धरती पर हज़ारों टन रासायनिक हथियार दफना दिए। आज भी चीन के किसान खेती करते समय जब ज़मीन खोदते हैं तो कहीं-कहीं ये ज़हरीले अवशेष निकल आते हैं और दुर्घटनाएँ घटती हैं। इसका मतलब है कि जापानी साम्राज्यवाद केवल इतिहास की किताब में नहीं, बल्कि आज भी जीवित जहर के रूप में लोगों को पीड़ित कर रहा है। इसके बावजूद जापान ने जर्मनी की तरह खुले और ईमानदार ढंग से अपने अपराध स्वीकार नहीं किए। उसने केवल कूटनीतिक औपचारिकताएँ निभाईं और कभी-कभार “अफ़सोस” जताने वाले बयान दिए। चीन और कोरिया लगातार मांग करते रहे हैं कि जापान अपने इतिहास से ईमानदारी से सामना करे, परंतु अब तक उनकी यह मांग पूरी नहीं हुई।

युद्ध के अंतिम चरण में अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए। जापान पर यह हमला उसके आत्मसमर्पण को सुनिश्चित करने का एक तरीका था, लेकिन इसके पीछे एक और गहरी मंशा छिपी थी सोवियत संघ को भयभीत करना। परमाणु बम का विस्फोट अमेरिका की नई वैश्विक ताक़त का ऐलान था। इसके बाद जापान अमेरिकी सुरक्षा छतरी में आ गया। वह न केवल अमेरिका का मित्र बना बल्कि एशिया में साम्यवाद को रोकने की अमेरिकी रणनीति का एक मुख्य हिस्सा भी बन गया। शीत युद्ध के दौरान जापान और दक्षिण कोरिया अमेरिका के सैन्य अड्डों में तब्दील हो गए। इस “संरक्षण” ने जापान को आर्थिक उन्नति का अवसर दिया और उसे एक औद्योगिक शक्ति बनने में मदद की। किंतु इस प्रक्रिया में उसके साम्राज्यवादी अपराधों की चर्चा दबा दी गई। अमेरिकी हितों के लिए यह सुविधाजनक था कि जापान को एक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में प्रस्तुत किया जाए, न कि एक अपराधी राष्ट्र के रूप में।

आज जब चीन एक आर्थिक और सामरिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है, तो वही पुराना इतिहास फिर से जीवित होता दिखता है। अमेरिका चीन के प्रभाव से चिंतित है और रणनीतिक रूप से जापान और दक्षिण कोरिया को अपने साथ खड़ा कर रहा है। यह परिघटना इस बात का प्रमाण है कि द्वितीय विश्व युद्ध केवल अतीत नहीं है, बल्कि आज के अंतरराष्ट्रीय संबंधों की संरचना को भी निर्धारित करता है। विजेताओं द्वारा लिखी गई कहानियाँ हमें अभी भी मित्र और शत्रु की पहचान बताती हैं। हम चीन को “चुनौती” और जापान को “सहयोगी” मानते हैं, जबकि अगर हम इतिहास की परतों को हटाएँ तो यह तस्वीर कहीं अधिक जटिल और नैतिक रूप से असुविधाजनक है। जापान का साम्राज्यवादी अतीत और चीन की पीड़ा हमें यही याद दिलाते हैं कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नैतिकता अक्सर शक्ति की राजनीति के आगे कमजोर पड़ जाती है।

इस पूरे परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट होता है कि साम्राज्यवादी अध्याय केवल इतिहास की स्मृति नहीं हैं, बल्कि आज के वैश्विक परिदृश्य को ढालने वाली सक्रिय शक्तियाँ हैं। द्वितीय विश्व युद्ध का कोश जितना नाज़ी जर्मनी और यूरोप के लिए भयावह था, उतना ही या उससे अधिक एशिया के लिए भी था। परंतु जिन देशों ने युद्ध जीता, उन्होंने अपनी कहानियाँ हमें थमाईं और बाकी को भुला दिया। सोवियत संघ और चीन की जनहानि, जापान के अपराध, उपनिवेशित समाजों की पीड़ा ये सब अक्सर हमारी स्मृति से बाहर रहते हैं। यही कारण है कि आज हमें इतिहास को केवल विजेताओं की आँखों से नहीं, बल्कि पीड़ितों की पीड़ा से भी देखना चाहिए। तभी हम समझ पाएंगे कि कैसे अतीत की छायाएँ आज की राजनीति पर हावी हैं और कैसे साम्राज्यवादी ताक़तों ने न केवल देशों को बल्कि हमारी सोच को भी ढाला है।

The News Grit,29/08/2025

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